परमपुज्यनीय बाबा गुरू घासीदास जी का अवतरण
परमपुज्यनीय बाबा गुरू घासीदास जी का अवतरण सचमुच जीव जगत के जीवन में जोत जलाने के लिए हुआ था। गुरू ने नूतन व्यवस्था और नवीनधारा को परखा। उन्होंने पूॅजीवाद, समाजवादी तथा जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ सत संदेश का प्रचार किया। गुरूजी ने सतनाम आंदोलन चलाकर सम्पूर्ण मानव को एक सूत्र में पिरोया और सतनाम आंदोलन से ही स्वाधीनता आंदोलन के स्वरूप का निर्धारण हुआ आगे चलकर स्वतंत्र भारत की कल्पना भी साकार हो सकी। सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप देने के लिये गुरूजी सघन दौरा कर समाजवाद के सिध्दांत को जन्म दिया। सतनाम आंदोलन को तीव्र गति को देने के लिये केन्द्र बिन्दु चिन्हित किया गया। सतनाम आंदोलन का मुख्य कार्यालय भंडारपुरी, तेलासी, बोड़सरा, चटुआ, खपरी, खडु़वा आदि स्थान से आंदोलन संचालित था। इनके अलावा सतनाम आंदोलन के छोटे-छोटे कई बनाये गये थे जहाॅ से आंदोलन का संचालन किया जाता था। छत्तीसगढ़ में खासकर बिलासपुर, मुंगेली, रतनपुर, पंडारिया, कवर्धा, गंड़ई खैरागढ़, राजनांदगांव, पानाबरस, दुर्ग, रायपुर, तेलासी, बलोदाबाजार, सिरपुर, राजिम, रायगढ़, जगदलपुर, उड़ीसा, के कुछ भाग नागपुर, चन्द्रपुर, सारंगढ़ कुदुरमाल, नारायणपुर, बीजापुर, कोन्टा, सुकमा, तक संचालित थे। गुरू घासीदास जी के पश्चात् इस आंदोलन को और तेज गति प्रदान करने में किसी को अह्म भूमिका दिखता है तो छत्तीसगढ़ के राजा गुरू बालकदास जी हैं अंग्रेजों के समय ही छत्तीसगढ़ में सतनाम आंदोलन का प्रभाव बन गया था। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ गुरू के समतावादी व्यवस्था से प्रभावित थे। सतनाममय छत्तीसगढ़ में गुरू के प्रभाव से ब्रिटिश सरकार भी अंचभित थे। इसलिए गुरू बालकदास को ब्रिटिश सरकार ने राजा की उपाधि से विभूषित कर अपने ओर मिलाने का भरसक प्रयास किया। पर गुरू बालकदास में आजादी के सपने कूट-कूटकर भरा था, उन्होंने भारत के आजादी के लियें अपनों के साथ मिलकर नारायण सिंह को साथ लेकर काम किया। गुरू बालकदास ने अपने पिता के द्वारा चलाये रावटी प्रथा को तीव्र गति से बढ़ाया। इस गति में सोनाखान के बिझवार जमींदार रामसाय के पुत्र वीरनारायण गुरू के अच्छे मित्र रहे। दोनों ने अंग्रेजों के खिलाफ जमीदारी प्रथा, अकाल, भुख एवं अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष शुरू किया, यहीं कारण था कि गुरू बालकदास एवं वीरनारायण सिंह अंग्रेजों के लिए आंख की किरकिरी साबित हुए। सामंतवाद, साम्राज्यवाद तथा संभ्रातवाद के खिलाफ दोनों ने जमकर अगुवाई भी की। अन्याय, अत्याचार, रूढ़िवाद, और अंधविश्वास को जड़ से समाप्ति करने का बीड़ा भी गुरू बालकदास ने उठाया। अंग्रेजों ने गुरू के खिलाफ माहौल तैयार करने मुहिम चलाई, जिसमें मालगुजारों सामंतो व अपने को संभ्रांत समझने वालों ने अंग्रेजों का साथ दिया। छत्तीसगढ़ में सतनाम आंदोलन मूल रूप से सामाजिक आंदोलन का सामाजिक ढ़ंाचा में पहुंचाया, अंग्रेजो के खिलाफ प्रचार-प्रसार किया, गुरू का प्रभाव छत्तीसगढ़ के अनेक घरों तक पहुंचा। वे छत्तीसगढ़ समाज के बहादुर गुरू थे। गुरू ने सुरक्षा के लिये सेना का गठन कर उनका सुदृढ़ ढ़ंग से प्रशिक्षण चलाया। ब्रिटिश हुकूमत हिलने लगी थी। अंग्रेजों ने नई चाल चला छत्तीसगढ़ के अन्य लोंगो को मिलाकर गुरू की छवि धूमिल करना शुरू किया तथा गुरू के बढ़ते प्रभाव को समाप्त करने के लिये तरह-तरह का षड्यंत्र शुरू हुआ, गुरू बालकदास की ख्याति शक्तिशाली राजा के समान थी। गुरू ठाठ-बांट से रहते थे, हाथी पर सवार होकर सतनाम आंदोलन तथा सतनाम सेना का संचालन करते हुऐ रावटी प्रथा जारी की थी।
परमपुज्यनीय बाबा गुरू घासीदास जी का अवतरण सचमुच जीव जगत के जीवन में जोत जलाने के लिए हुआ था। गुरू ने नूतन व्यवस्था और नवीनधारा को परखा। उन्होंने पूॅजीवाद, समाजवादी तथा जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ सत संदेश का प्रचार किया। गुरूजी ने सतनाम आंदोलन चलाकर सम्पूर्ण मानव को एक सूत्र में पिरोया और सतनाम आंदोलन से ही स्वाधीनता आंदोलन के स्वरूप का निर्धारण हुआ आगे चलकर स्वतंत्र भारत की कल्पना भी साकार हो सकी। सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप देने के लिये गुरूजी सघन दौरा कर समाजवाद के सिध्दांत को जन्म दिया। सतनाम आंदोलन को तीव्र गति को देने के लिये केन्द्र बिन्दु चिन्हित किया गया। सतनाम आंदोलन का मुख्य कार्यालय भंडारपुरी, तेलासी, बोड़सरा, चटुआ, खपरी, खडु़वा आदि स्थान से आंदोलन संचालित था। इनके अलावा सतनाम आंदोलन के छोटे-छोटे कई बनाये गये थे जहाॅ से आंदोलन का संचालन किया जाता था। छत्तीसगढ़ में खासकर बिलासपुर, मुंगेली, रतनपुर, पंडारिया, कवर्धा, गंड़ई खैरागढ़, राजनांदगांव, पानाबरस, दुर्ग, रायपुर, तेलासी, बलोदाबाजार, सिरपुर, राजिम, रायगढ़, जगदलपुर, उड़ीसा, के कुछ भाग नागपुर, चन्द्रपुर, सारंगढ़ कुदुरमाल, नारायणपुर, बीजापुर, कोन्टा, सुकमा, तक संचालित थे। गुरू घासीदास जी के पश्चात् इस आंदोलन को और तेज गति प्रदान करने में किसी को अह्म भूमिका दिखता है तो छत्तीसगढ़ के राजा गुरू बालकदास जी हैं अंग्रेजों के समय ही छत्तीसगढ़ में सतनाम आंदोलन का प्रभाव बन गया था। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ गुरू के समतावादी व्यवस्था से प्रभावित थे। सतनाममय छत्तीसगढ़ में गुरू के प्रभाव से ब्रिटिश सरकार भी अंचभित थे। इसलिए गुरू बालकदास को ब्रिटिश सरकार ने राजा की उपाधि से विभूषित कर अपने ओर मिलाने का भरसक प्रयास किया। पर गुरू बालकदास में आजादी के सपने कूट-कूटकर भरा था, उन्होंने भारत के आजादी के लियें अपनों के साथ मिलकर नारायण सिंह को साथ लेकर काम किया। गुरू बालकदास ने अपने पिता के द्वारा चलाये रावटी प्रथा को तीव्र गति से बढ़ाया। इस गति में सोनाखान के बिझवार जमींदार रामसाय के पुत्र वीरनारायण गुरू के अच्छे मित्र रहे। दोनों ने अंग्रेजों के खिलाफ जमीदारी प्रथा, अकाल, भुख एवं अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष शुरू किया, यहीं कारण था कि गुरू बालकदास एवं वीरनारायण सिंह अंग्रेजों के लिए आंख की किरकिरी साबित हुए। सामंतवाद, साम्राज्यवाद तथा संभ्रातवाद के खिलाफ दोनों ने जमकर अगुवाई भी की। अन्याय, अत्याचार, रूढ़िवाद, और अंधविश्वास को जड़ से समाप्ति करने का बीड़ा भी गुरू बालकदास ने उठाया। अंग्रेजों ने गुरू के खिलाफ माहौल तैयार करने मुहिम चलाई, जिसमें मालगुजारों सामंतो व अपने को संभ्रांत समझने वालों ने अंग्रेजों का साथ दिया। छत्तीसगढ़ में सतनाम आंदोलन मूल रूप से सामाजिक आंदोलन का सामाजिक ढ़ंाचा में पहुंचाया, अंग्रेजो के खिलाफ प्रचार-प्रसार किया, गुरू का प्रभाव छत्तीसगढ़ के अनेक घरों तक पहुंचा। वे छत्तीसगढ़ समाज के बहादुर गुरू थे। गुरू ने सुरक्षा के लिये सेना का गठन कर उनका सुदृढ़ ढ़ंग से प्रशिक्षण चलाया। ब्रिटिश हुकूमत हिलने लगी थी। अंग्रेजों ने नई चाल चला छत्तीसगढ़ के अन्य लोंगो को मिलाकर गुरू की छवि धूमिल करना शुरू किया तथा गुरू के बढ़ते प्रभाव को समाप्त करने के लिये तरह-तरह का षड्यंत्र शुरू हुआ, गुरू बालकदास की ख्याति शक्तिशाली राजा के समान थी। गुरू ठाठ-बांट से रहते थे, हाथी पर सवार होकर सतनाम आंदोलन तथा सतनाम सेना का संचालन करते हुऐ रावटी प्रथा जारी की थी।
परम् पूज्य बाबा गुरू घासीदास जी का अवतार मांघ पौर्ण मासी के दिन सोमवार को १७५६ में हुआ था उनके पिता का नाम महंगुदास और माता का नाम अमरौतिन था । गिरौदपुरी से कुछ दुरी पर तपो भूमि है, जहां बाबा ने तपस्या करके सतज्ञान के अमर गाथा को जन मानस के लिये जागृत किये । वहां पर गुरूजी के याद में ज्योति कलश रात-दिन जलते रहता हैं साथ में गुरू गद्दी का भी स्थापना है जो सतपुरूष पिता सतनाम का प्रतीक है । साथ ही मंदिर प्रागंण में जोड़ा जैतखाम भी गड़ा हुआ है । तपस्थली से निचे की ओर थोड़ी दुरी पर चरण कुंड और उससे आगे अमृत कुंड है । पहले ये दोनो बहुत ही छोटे रूप में थे, परन्तु उसमें का पानी कभी समाप्त नही होता था, आज कल तो वहां पिने और स्नान करने के लिये बहुत कुछ साधन उपलब्ध करा दिया गया है लेकिन पहले ऐसा नही था, लोगो को पिने खाने और स्नान के लिये चरण कुंड के पानी पर ही निर्भर रहना पड़ता था । लाखो जनता और एक छोटा सा कुंड परन्तु उसमें का पानी सभी के लिये पर्याप्त होता था । कभी कमी नही हुआ । अमृत कुंड के पानी को लोग अपने साथ बोतल या डिब्बे में लेकर घर लाते हैं और उसका उपयोग अनेक तरह के सामाजिक और धार्मिक कार्यो के लिये करते हैं । अमृत कुंड का पानी कभी खराब नही होता आप चाहे उसे कितने ही दिन या कितने ही वर्ष क्यो न रखे रहो । कारण आज भी अनभिग्य है । पहले अमृत कुंड बहुत ही छोटा सा था, बड़ी मुस्किल से उसमें एक बाल्टी ही आ सकता था, परन्तु उस छोटे से कुंड का पानी कभी समाप्त नही हुआ, आप जितना चाहे निकाल ले उसमें पानी हमेशा उतना ही भरा रहता था । िफर वहां से आगे छाता पहाड़ के दर्शन करने के लिये लोग प्रस्थान करते हैं । पहले जोक नदी जाकर स्नान करने के पश्चात वही पर खाना बनाते हैं और खाना खाकर थोड़ी देर विश्राम करने के पश्चात फिर छाता पहाड़ का दर्शन करने के लिये चल पड़ते हैं । छाता पहाड़ के दर्शन के पश्चात पचकुण्डी के दर्शन के लिये निकल पड़ते हैं । फिर वहां दर्शन करने के पश्चात वापस तपोस्थली मे आकर रात्री को विश्राम करते हैं और िफर सप्तमी के दिन जैतखाम में ध्वजा चढ़ाकर (जिसे पालो चढ़ाना कहा जाता है) आम जन मानस अपने अपने घर के लिये रवाना हो जाते हैं । तीन दिन गिरौदपुरी धाम में बिताने का सुख कैसा होता है उसे वही ब्यक्ति अनुभव कर सकता है जो वहां सच्ची श्रद्धा भक्ति के साथ गया हो और पुरे धार्मिक रिती रिवाज के अनुसार तीन दिन का समय गुजारा हो । पिछले वर्ष मुझे विगत वर्षो की भाँति गिरौदपुरी मेला जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, मैं अपने आपको धन्य मानता हूँ कि मैंने गुरू जी के अवतार स्थली, तपोस्थली, चरण कुण्ड, अमृत कुण्ड, छाता पहाड़ आदि धार्मिक स्थलो के साथ साथ समाज के प्रबुद्ध ब्यक्तियो का भी दर्शन पाया । लोगो की धार्मिक भावना और गुरू जी के प्रति उनके आगाध श्रद्धा को देखकर आँखो से खुशी की आँसू टपक पड़े थे । जितनी खुशी मुझे वहां महसुस हुई उसको मैं ब्यक्त नही कर सकता, जिन जिन भाईयो को वहां अपने समाज के गौरव गाथा और सतनाम के महिमा के बारे में जानकर खुशी हुई होगी वह आसानी से धार्मिक भावना को समझ सकता है । १७ मार्च को मैं छाता पहाड़ पहुँचा जहां मुझे बहुत से जान पहचान के लोग मिले, उनसे मिलकर पुरानी यादें ताजा हो गई । लेकिन एक संत से मिलकर तो मुझे ऐसा लगा मानो मैंने कोई बहुत बड़ी कामयाबी प्राप्त कर ली हो । उनसे मिलने के बाद जब मैं छाता पहाड़ से निचे की ओर आ रहा था तभी मेरे एक साथी ने इशारा करते हुये दिखाया कि यह देखो यहां कोई संत समाधी लिये हुये है । हमने झट ही उसी ओर प्रस्थान कर गये, हमने देखा कि एक बुजुर्ग सा ब्यक्ति जिसका छायाचित्र के सामने जोत जल रहा था, पुछने पर पता चला कि यह जिस संत का छायाचित्र है वह २४ घंटे के लिये समाधी लिये हुये हैं । इतना सुनते ही मैने अपनी जिज्ञासा को और बढ़ाते हुये वही पर बैठे कुछ महिला और पुरूषो से वार्तालाप करना शुरू कर दिया । उन लोगो ने मेरे जिज्ञासा को शांत करने का भरपुर प्रयास किये, सच कहूँ तो उन लोगो ने कुछ ऐसे ऐसे उत्तर दिये कि मैं दोबारा प्रश्न करने का साहस ही नही जुटा पाया । सच कहुँ तर्क वितर्क करना आसान है परन्तु जब बात प्रेक्टिकल की आती है तो मुँह से बोली भी नही निकलती, सच में कितना कठिन साधना करने के पश्चात लोग ऐसा अद्भुत कार्य कर पाते होंगे । एक ही तरह के आसन में २४ घंटे और वह भी जमीन के अंदर बैठे रहना क्या आसान काम होगा, यह बात उन लोगो के लिये विचार करने योग्य है जो अध्यात्मिक शक्ति को नही मानते और विज्ञान का गुणगान करते नही थकते । जरा एक बार एक ही स्थिति में ८-१० घंटे बैठकर तो देखें, सारा भ्रम दुर हो जायेगा । हम भले ही किसी अध्यात्मिक शक्ति को न माने परन्तु लोगो ने जो कठिन साधना कर शक्ति प्राप्त किये हैं उसे सही या गलत का सर्टिफिकेट देने वाले हम कौन होते हैं । मैने समाज के अनेको संतो को समाधी लगाते देखा है कोई सात दिन के लिये तो कोई पांच, तीन, दो, एक आदि के लिये समाधी लगाते हैं, यह उनकी अपनी शक्ति के उपर निर्भर करता है कि कौन कितने दिनो के लिये समाधी लगाये । समाधी लगाने में समाज कि महिला वर्ग भी आगे हैं, अनेको महिलायें हैं जो समाधी लगाती हैं । सतनाम् एक नाम है, बिरले कोई जानन हार । जे जानै सो भंव तरे, भंव सागर से पार ।।
लेखक- श्री विष्णु बन्जारे सतनामी
सतनाम धर्म की ओर से जनहित में प्रसारित