परमपुज्यनीय गुरूघासी दास के उपदेश एवं जयंती का शुरूआत
18 दिसम्बर सन् 1756 को छत्तीसगढ़ की पावन धरती पर गिरौदपुरी ग्राम में माता अमरौतिन और पिता महंगू दास के सुपुत्र के रूप में परमपुज्यनीय गुरू घासीदास बाबा जी ने जन्म लिया था। 18वीं शताब्दी में जब परमपुज्यनीय गुरू घासीदास बाबा जी का जन्म हुआ था, उस समय भारतीय समाज वर्ण व्यवस्था के साथ-साथ जाति व्यवस्था में बंटा हुआ था। प्रत्येक जाति एवं वर्ण के लोग एक दूसरे को छोटे तथा बड़े के रूप में देखते थे, छोटे और बड़े के अलावा समाज में छुआछूत मानने की प्रथा व्याप्त थी, एक जाति का व्यक्ति दूसरे जाति के व्यक्ति के मानवीय एवं सामाजिक क्रियाकलापों से अलग रहता था, जिसकी प्रतिछाया आज भी देखने को मिलता है। इस काल में प्रत्येक जाति समाज में सामाजिक बुराईयां फैली हुई थीं, जैसे कि रूढ़िवादी अंधविश्वास, मद्यपान, हिंसा, चोरी, व्याभिचारी इत्यादि।
परमपुज्यनीय गुरू घासीदास बाबा जी ने देखा कि प्रत्येक समाज में भयंकर रूप से सामाजिक बुराईयां हैं, समाज से निकलकर देखा तो जातिगत बुराईयां खड़ी थीं, जो एक दूसरे को काट खाने को तैयार थे, जातिगत व्यवस्था के बाद वर्ण व्यवस्था की जड़ें अपनी गहरी पैर फैलाए हुए खड़ी थी और यह सब मानव कल्याण के लिए बाधक था। इन सब बुराईयों से खिन्न होकर परमपुज्यनीय गुरू घासीदास बाबा जी ज्ञान प्राप्ति के लिए जंगल की ओर चल पड़े। घने जंगल में कठोर तपस्या किया तत्पश्चात् उन्हें सतनाम रूपी ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्ञान प्राप्ति के बाद गुरू बाबा घासीदास ने सर्वप्रथम समाज में व्याप्त रूढ़िवादी, अंधविश्वास, मद्यपान, हिंसा, चोरी, व्याभिचारी इत्यादि बुराईयों को समाज से दूर करने के लिए लोगों को जागृत किये तथा जगह-जगह रावटी (सत्संग) लगाकर लोगों को प्रवचन कहकर शिक्षा दिये जो कि निम्नलिखित हैं:-
1. जीव हिंसा मत करो।
2. मदिरापान मत करो।
3. मुर्तिपूजा मत करो।
4. व्याभिचारी मत करो। (दूसरे स्त्री को माता एवं बहन के समान मानो)
5. चोरी मत करो।
6. जुआ मत खेलो।
7. मांस भक्षण मत करो।
8. सब मनुष्य बराबर हैं। (मनखे मनखे एक समान)
9. जाति व्यवस्था में विश्वास मत करो इत्यादि-इत्यादि।
परमपुज्यनीय गुरू घासीदास बाबा जी के सत्संग से प्रभावित होकर लोग समाजिक बुराईयों को त्यागने लगे और व्यक्ति की मानवीय गुण उभर कर सामने आने लगा। इसी दौर में बाबा ने लोगों को जाति एवं वर्ण व्यवस्था के खिलाफ बताया कि मनुष्य आपस में जाति में बंटे होने के कारण भाईचारा का अभाव है, जिस प्रकार पशु आपस में लड़ते-मरते रहते हैं उसी प्रकार इस व्यवस्था के कारण मनुष्य बुद्धिशील प्राणी होते हुए भी आपस में जाति तथा वर्ण व्यवस्था के आधार पर आपस में लड़, मर एवं कट रहे थे। बाबाजी के संदेश से प्रभावित होकर लोग जाति व्यवस्था से हटकर बाबा जी के मार्ग में चलने लगे तथा ''मनखे-मनखे एक समान'' के नारा को बुलंद करते हुए सतनाम पंथ में सम्मिलित होने लगे जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण ग्राम तेलासी है, जिसमें तेली, यादव और अन्य जाति के लोग सतनाम पंथ में सम्मिलित हुए। इसी काल को बाबाजी की ऐश्वर्य, कारूणिक, मानवीय तथा भाईचारा के काल के नाम से छत्तीसगढ़ में जाना जाता है।
परमपुज्यनीय गुरू घासीदास बाबा जी मानव में जाति विहीन समाज बनाने का सफल प्रयास किये l कालान्तर में परमपुज्यनीय गुरू घासीदास बाबा जी का संदेश मात्र औपचारिकता बनकर समाज में व्याप्त था, जाति विहीन समाज बनाने की परिकल्पना को साकार करके बाबाजी ने लोगों को नवमार्ग प्रदान किया था फलस्वरूप बीसवीं शताब्दी में दिवंगत दादा नकुल ढीढी जी परमपुज्यनीय गुरू घासीदास बाबा जी के सतनाम के संदेश को आगे बढाने हेतु कार्य किया और जातिविहीन, समता मूलक समाज बनाने हेतु लोगों को जागृत करने के लिए अपने गृह ग्राम भोरिंग में 18 दिसम्बर 1938 को परमपुज्यनीय गुरू घासीदास बाबा जी का प्रथम जयंती मनाकर सतनामी भाईयों को जयंति मनाने का संदेश दिया और आज हम पुन: सतनाम धर्म के बारे में विस्तत रूप से जान सकने में सामर्थ्य हुए l
लेख: श्री बसंत खरे